बहराइच की बड़ी खबर: जब शिक्षक गायब मिले और बच्चे खेलते नजर आए
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बिहार की राजनीति: संघर्ष, परिवर्तन और सामाजिक न्याय की भूमि भारत के राजनीतिक इतिहास में बिहार का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। यह वह भूमि है जहाँ से भारतीय लोकतंत्र की जड़ें गहरी हुईं, जहाँ समाज परिवर्तन के आंदोलनों ने पूरे राष्ट्र को प्रभावित किया, और जहाँ से सामाजिक न्याय की राजनीति न
भारत के राजनीतिक इतिहास में बिहार का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। यह वह भूमि है जहाँ से भारतीय लोकतंत्र की जड़ें गहरी हुईं, जहाँ समाज परिवर्तन के आंदोलनों ने पूरे राष्ट्र को प्रभावित किया, और जहाँ से सामाजिक न्याय की राजनीति ने राष्ट्रीय विमर्श को नया आकार दिया। बिहार केवल एक राज्य नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति की दिशा और दशा तय करने वाला एक प्रयोगशाला रहा है।
लोकसभा की 543 सीटों में से 40 सीटें बिहार से आती हैं, और इनका महत्व हर राष्ट्रीय चुनाव में निर्णायक होता है। यही कारण है कि दिल्ली की सत्ता की राह अक्सर पटना से होकर गुजरती है।
बिहार की राजनीतिक चेतना का इतिहास अत्यंत पुराना है। मगध साम्राज्य, जो वर्तमान बिहार में ही स्थित था, प्राचीन भारत का राजनीतिक केंद्र रहा। मौर्य वंश के चंद्रगुप्त और अशोक जैसे शासकों ने यहाँ से शासन करते हुए भारतीय उपमहाद्वीप को एक राजनीतिक एकता में बांधा।
अशोक का “धम्म नीति” शासन और बौद्ध धर्म का प्रचार उस समय की “नीति-राजनीति” की सर्वोच्च अभिव्यक्ति थी।
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद भी बिहार राजनीतिक रूप से सक्रिय रहा। गुप्त साम्राज्य, जिसने स्वर्ण युग की नींव रखी, इसी धरती से निकला। मध्यकाल में यह क्षेत्र मुस्लिम शासन और बाद में मुगलों के अधीन आया, लेकिन राजनीतिक चेतना कभी समाप्त नहीं हुई।
ब्रिटिश शासन के दौरान बिहार स्वतंत्रता आंदोलन का एक प्रमुख केंद्र बना। चंपारण सत्याग्रह (1917), जिसे महात्मा गांधी ने यहीं से प्रारंभ किया, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का निर्णायक मोड़ था।
राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह, श्रीकृष्ण सिंह और जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं ने बिहार को राजनीति और विचारधारा का नेतृत्व प्रदान किया।
स्वतंत्रता से पहले ही बिहार में किसान आंदोलनों, मजदूर संगठनों और समाजवादी विचारों का प्रसार हो चुका था। यह वही भूमि थी जहाँ “सत्ता जनता के हाथ में होनी चाहिए” का विचार जन-जन तक पहुंचा।
1947 के बाद बिहार की राजनीति कांग्रेस के प्रभुत्व में रही। डॉ. श्रीकृष्ण सिंह राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने और उन्होंने औद्योगिकीकरण और शिक्षा पर बल दिया।
1950 से 1967 तक कांग्रेस का शासन लगभग अटूट रहा, लेकिन समाज के निचले तबकों में असंतोष धीरे-धीरे बढ़ने लगा।
कृषि सुधारों के नाम पर जमींदारी उन्मूलन अधिनियम तो बना, पर वास्तविक लाभ गरीबों तक नहीं पहुंच पाया।
1967 में पहली बार कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई और एक गठबंधन सरकार बनी, जिसने बिहार की राजनीति में गठबंधन युग की शुरुआत की। यही वह दौर था जब समाजवादी और वामपंथी विचारधारा ने जड़ें जमाईं।
1970 का दशक बिहार की राजनीति के लिए निर्णायक था। जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने “संपूर्ण क्रांति” का नारा दिया, जो केवल राजनीतिक नहीं बल्कि सामाजिक और नैतिक परिवर्तन की मांग थी।
जेपी आंदोलन ने युवा वर्ग को राजनीति में सक्रिय किया, जिसमें बाद में लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान जैसे नेता उभरे।
जेपी आंदोलन ने कांग्रेस की केंद्रीकृत सत्ता को चुनौती दी और लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका को मजबूत किया। इसी आंदोलन से निकलने वाले नेताओं ने आगे चलकर भारतीय राजनीति में बड़ा योगदान दिया।
1990 का दशक बिहार की राजनीति में एक नए युग की शुरुआत थी। लालू प्रसाद यादव ने सामाजिक न्याय की राजनीति को नई परिभाषा दी।
उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (RJD) ने पिछड़े वर्गों, दलितों और अल्पसंख्यकों को राजनीतिक शक्ति दी।
लालू यादव का नारा था — “भूरा बाल साफ करो” (भू = भूमिहार, रा = राजपूत, बा = ब्राह्मण, ला = लाला यानी वैश्य)।
यह नारा प्रतीक था उस सामाजिक क्रांति का, जिसने सदियों से हाशिये पर रहे वर्गों को सत्ता में भागीदारी दी।
लालू यादव के शासन में एक ओर जहां सामाजिक सशक्तिकरण हुआ, वहीं दूसरी ओर भ्रष्टाचार, अपराध और अव्यवस्था के आरोप भी लगे।
चाराघोटाला (Fodder Scam) ने उनकी छवि को गहरा झटका दिया और 1997 के बाद से बिहार राजनीतिक अस्थिरता के दौर में प्रवेश कर गया।
2005 में बिहार की राजनीति में एक नया अध्याय शुरू हुआ, जब नीतीश कुमार (जनता दल यूनाइटेड – JDU) ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के साथ मिलकर सत्ता संभाली।
उन्होंने “सड़क, बिजली, पानी” जैसे बुनियादी मुद्दों पर ध्यान दिया और बिहार की छवि सुधारने का प्रयास किया।
नीतीश कुमार का शासन “विकास बनाम जाति” की राजनीति के रूप में देखा गया।
उन्होंने कानून-व्यवस्था को मजबूत किया, शिक्षा में सुधार लाए और महिला सशक्तिकरण की दिशा में पंचायती राज में 50% आरक्षण लागू किया।
हालाँकि, 2010 के बाद से राजनीतिक समीकरण लगातार बदलते रहे — कभी भाजपा के साथ, कभी उससे अलग, और कभी फिर गठबंधन।
बिहार की राजनीति जातीय समीकरणों से गहराई से प्रभावित रही है।
राज्य की राजनीति में मुख्य जातीय वर्ग इस प्रकार हैं —
ऊँची जातियाँ (ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, कायस्थ)
पिछड़ी जातियाँ (यादव, कुर्मी, कोयरी आदि)
दलित वर्ग (मुसहर, पासी, चमार आदि)
अल्पसंख्यक (विशेषकर मुसलमान)
राजनीतिक दलों ने इन जातियों को अपने वोट बैंक के रूप में देखा।
जहाँ RJD ने यादव-मुस्लिम समीकरण (MY formula) पर भरोसा किया, वहीं JDU ने पिछड़े और अतिपिछड़े वर्गों को जोड़ने की कोशिश की।
भाजपा ने पारंपरिक ऊँची जातियों और शहरी वर्गों पर अपना प्रभाव कायम रखा।
बिहार में महिला मतदाता अब निर्णायक भूमिका में हैं।
नीतीश कुमार की “मुख्यमंत्री साइकिल योजना” और “पढ़ी लिखी बेटी, बढ़ी हुई रौशनी” जैसे अभियानों ने महिला शिक्षा और भागीदारी को बढ़ाया।
आज पंचायत स्तर पर महिलाएँ बड़ी संख्या में नेतृत्व कर रही हैं।
युवा मतदाताओं में शिक्षा, रोजगार और प्रवासन मुख्य मुद्दे हैं।
इन वर्गों ने हाल के वर्षों में चुनाव परिणामों को अप्रत्याशित दिशा में मोड़ा है।
2020 के विधानसभा चुनावों में बिहार ने एक बार फिर जटिल राजनीतिक समीकरण प्रस्तुत किया।
नीतीश कुमार के नेतृत्व में NDA ने सरकार बनाई, परन्तु RJD सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी।
तेजस्वी यादव ने युवा नेतृत्व के रूप में नई पहचान बनाई।
2022 में नीतीश कुमार ने BJP से गठबंधन तोड़कर RJD के साथ सरकार बनाई — और 2024 तक राजनीतिक अस्थिरता फिर से बढ़ी।
यह दर्शाता है कि बिहार की राजनीति आज भी गठबंधन, जाति, और व्यक्तिगत समीकरणों के बीच संतुलन का खेल है।
बिहार ने हमेशा राष्ट्रीय राजनीति को दिशा दी है।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद — भारत के पहले राष्ट्रपति
जयप्रकाश नारायण — “संपूर्ण क्रांति” के जनक
राममनोहर लोहिया — समाजवाद के प्रणेता
लालू प्रसाद यादव — सामाजिक न्याय के प्रतीक
नीतीश कुमार — सुशासन मॉडल के प्रतिनिधि
इसके अलावा, भाजपा, कांग्रेस, RJD और JDU — चारों राष्ट्रीय महत्व की रणनीति बिहार की राजनीति से प्रभावित रही है।
दिल्ली की सत्ता तक पहुँचने के लिए किसी भी दल को बिहार की राजनीति को समझना अनिवार्य है।
बिहार में मीडिया की भूमिका भी राजनीति में गहराई से जुड़ी रही है।
यहाँ के क्षेत्रीय समाचार पत्रों, टीवी चैनलों और सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों ने राजनीति को जनता से जोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई।
शिक्षा के स्तर में सुधार के साथ-साथ राजनीतिक बहसें अब विश्वविद्यालयों, कोचिंग सेंटर्स और सोशल मीडिया तक फैल चुकी हैं।
बिहार की राजनीति कई चुनौतियों का सामना कर रही है —
रोज़गार और प्रवासन की समस्या
भ्रष्टाचार और अपराध का दबाव
शिक्षा और स्वास्थ्य की कमजोर स्थिति
जातीय तनाव और सामाजिक विभाजन
भविष्य में बिहार की राजनीति तभी स्थिर और प्रगतिशील हो पाएगी जब “सत्ता की राजनीति” से आगे बढ़कर “सेवा की राजनीति” पर ध्यान दिया जाएगा।
युवाओं की नई पीढ़ी अब जाति और धर्म से परे रोजगार, शिक्षा और अवसर की राजनीति चाहती है।
बिहार की राजनीति भारतीय लोकतंत्र का दर्पण है — जहाँ संघर्ष, बदलाव, असमानता और आशा, सब एक साथ मौजूद हैं।
यहाँ की राजनीति ने भारत को केवल नेता नहीं, बल्कि विचार और दिशा दी है।
मौर्य साम्राज्य की नीति, गांधी के सत्याग्रह की चेतना, जेपी आंदोलन की क्रांति और सामाजिक न्याय के संघर्ष — सबका संगम बिहार की भूमि पर हुआ है।
आज भी जब दिल्ली में सत्ता की गणना होती है, तो पटना के समीकरण तय करते हैं कि देश की दिशा क्या होगी।
इसलिए कहा जा सकता है —
“बिहार केवल एक राज्य नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति का धड़कता हुआ दिल है।”
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