बहराइच की बड़ी खबर: जब शिक्षक गायब मिले और बच्चे खेलते नजर आए
बहराइच की बड़ी खबर: जब शिक्षक गायब मिले और बच्चे खेलते नजर आए
जिला बहराइच के उ.प्राथमिक विद्यालय जगदीशपुर सोखा में शिक्षा व्यवस्था की पोल खुली – विभाग की लापरवाही पर उठे सवाल
भूमिका
उत्तर प्रदेश का बहराइच जिला, जो अपनी भौगोलिक विविधता और सामाजिक चुनौतियों के लिए जाना जाता है, इन दिनों एक बार फिर सुर्खियों में है। कारण है — सरकारी स्कूलों में शिक्षा व्यवस्था की हकीकत। जब अब तक टीवी न्यूज़ चैनल की टीम ने उ.प्राथमिक विद्यालय जगदीशपुर सोखा, ब्लॉक चित्तौरा का दौरा किया, तो वहाँ का दृश्य शिक्षा विभाग की वास्तविकता को सामने रख देने वाला था। सुबह के 9 बजकर 11 मिनट पर विद्यालय परिसर में बच्चे तो थे, लेकिन शिक्षक नहीं। विद्यालय का गेट खुला था, बच्चे खेल रहे थे, हँस रहे थे, दौड़ रहे थे — पर किसी भी शिक्षक या कर्मचारी की मौजूदगी नहीं थी।
यह दृश्य न केवल हैरान करने वाला था, बल्कि यह सवाल भी उठाता है कि जब सरकारी स्कूलों में बच्चे बिना शिक्षक के रह जाएंगे, तो “सबको शिक्षा, अच्छी शिक्षा” का सरकारी नारा आखिर कैसे साकार होगा?
घटना का क्रम
अब तक टीवी की टीम जैसे ही विद्यालय पहुंची, विद्यालय के मुख्य मैदान में 30 से अधिक बच्चे इधर-उधर खेलते हुए मिले। कुछ बच्चे झूले झूल रहे थे, तो कुछ गेंद खेल रहे थे। विद्यालय भवन के दरवाजे खुले थे, लेकिन किसी भी कक्षा में न तो पढ़ाई चल रही थी और न ही कोई शिक्षक मौजूद था। समय देखा गया — सुबह 9 बजकर 11 मिनट। यह वह समय होता है जब विद्यालयों में प्रार्थना चल रही होती है या कक्षाएं शुरू हो चुकी होती हैं।
टीम ने जब ग्रामीणों से पूछा तो उन्होंने बताया —
“अक्सर यही हाल रहता है साहब, कभी मास्टर जी देर से आते हैं, कभी कोई नहीं आता। बच्चे तो खेलकर चले जाते हैं।”
ग्राम पंचायत के ही एक बुजुर्ग ने कहा —
“सरकारी स्कूल तो बस नाम के लिए चल रहे हैं। यहाँ बच्चे आते हैं तो सही, पर पढ़ाई का नाम नहीं।”
यह स्थिति किसी एक दिन की नहीं, बल्कि एक गहराई में फैले हुए तंत्र की निशानी है — जहाँ जिम्मेदारी खो चुकी है, और जवाबदेही सिर्फ कागज़ों में बची है।
विद्यालय और क्षेत्र की पृष्ठभूमि
उ.प्राथमिक विद्यालय, जगदीशपुर सोखा, जिला बहराइच के चित्तौरा ब्लॉक में आता है। यह क्षेत्र ग्रामीण और पिछड़ा इलाका है जहाँ शिक्षा के प्रति जागरूकता धीरे-धीरे बढ़ रही है। गांव में लगभग 300 परिवार रहते हैं, जिनमें अधिकतर कृषि कार्य से जुड़े हैं। बच्चों की संख्या अच्छी-खासी है, लेकिन विद्यालय में पढ़ाई की गुणवत्ता बेहद चिंताजनक बताई जाती है।
विद्यालय में कुल चार शिक्षक और एक शिक्षा मित्र नियुक्त हैं। रिकॉर्ड में रोज़ उपस्थिति दर्ज होती है, लेकिन हकीकत कुछ और कहती है। ग्रामीणों का कहना है कि शिक्षक अक्सर देर से आते हैं या छुट्टी लेकर चले जाते हैं, जबकि बच्चों की उपस्थिति हर दिन रहती है।
बच्चों से बातचीत
टीम ने कुछ बच्चों से जब पूछा कि “मास्टर जी कहाँ हैं?”, तो मासूम जवाब मिला —
“अभी नहीं आए हैं।” “कभी-कभी देर से आते हैं।” “हम खेलते हैं फिर क्लास लगती है।”
बच्चों के चेहरे पर मासूमियत थी, लेकिन उनके शब्दों में अनजाने में छिपा सच साफ झलक रहा था। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि उनका जो समय खेल में बीत रहा है, वही उनके जीवन का सबसे कीमती सीखने का समय है।
शिक्षकों की अनुपस्थिति — एक गंभीर संकेत
शिक्षक केवल पढ़ाने वाले नहीं होते, बल्कि वे बच्चों के भविष्य के निर्माता होते हैं। लेकिन जब वही शिक्षक अपनी जिम्मेदारी से दूर रहते हैं, तो न केवल बच्चों का भविष्य, बल्कि समाज की नींव भी कमजोर होती है। इस विद्यालय की घटना सिर्फ एक विद्यालय की नहीं, बल्कि पूरे जिले में सरकारी स्कूलों की स्थिति पर प्रश्नचिह्न है।
2018 से अब तक शिक्षा विभाग ने “मिशन प्रेरणा” और “ऑपरेशन कायाकल्प” जैसी कई योजनाएँ चलाई हैं। इन योजनाओं का उद्देश्य था — विद्यालयों में शिक्षण की गुणवत्ता बढ़ाना, उपस्थिति सुनिश्चित करना और बच्चों में सीखने की क्षमता विकसित करना। लेकिन जमीनी हकीकत इस मिशन से बहुत दूर है।
ग्रामीणों की नाराज़गी
गांव के निवासी नसीर अहमद कहते हैं —
“हमारे बच्चे रोज़ सुबह तैयार होकर स्कूल जाते हैं। लेकिन कई बार बिना कुछ पढ़े लौट आते हैं। हमें दुख होता है कि सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के साथ ऐसा भेदभाव होता है।”
वहीं एक अन्य अभिभावक, सावित्री देवी ने कहा —
“सरकारी स्कूल में अगर शिक्षक समय पर नहीं आएंगे, तो गरीब का बच्चा कहाँ जाएगा? हमारे पास तो प्राइवेट स्कूल भेजने के पैसे नहीं हैं।”
यह बयान केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि उस वर्ग की आवाज़ है जो सरकार के भरोसे अपने बच्चों का भविष्य बनाना चाहता है।
जिम्मेदारी किसकी – शिक्षा विभाग की चुप्पी पर उठे सवाल
विभागीय प्रतिक्रिया: मौन या औपचारिकता?
जब अब तक टीवी न्यूज़ चैनल की टीम ने इस पूरे मामले पर बेसिक शिक्षा अधिकारी (BSA) बहराइच से संपर्क किया, तो प्रारंभ में अधिकारी अनुपलब्ध रहे। बाद में कार्यालय के एक कर्मचारी ने बताया कि “जांच कराई जाएगी”। लेकिन इस तरह के जवाब पहले भी कई बार दिए गए हैं। “जांच” का शब्द अब ग्रामीणों और मीडिया के बीच एक औपचारिक वाक्यांश बन चुका है।
गांव के लोग कहते हैं कि हर बार जब कोई खबर छपती है या टीवी पर चलती है, तो अधिकारी एक-दो दिन के लिए सक्रिय हो जाते हैं। शिक्षक कुछ दिनों तक समय पर आते हैं, फिर वही पुराना हाल लौट आता है।
शिक्षा विभाग की यह चुप्पी इस बात का संकेत है कि प्रणाली के भीतर जवाबदेही लगभग खत्म हो चुकी है। ऊपर से नीचे तक हर स्तर पर “औपचारिक कार्यवाही” ही की जाती है —
एक रिपोर्ट बनाई जाती है,
कुछ हस्ताक्षर होते हैं,
और मामला “निपट गया” मान लिया जाता है।
विद्यालय में सुधार का दावा — लेकिन जमीन पर हकीकत विपरीत
उत्तर प्रदेश सरकार का “मिशन प्रेरणा” कार्यक्रम सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों के सीखने की क्षमता बढ़ाने का एक महत्त्वाकांक्षी अभियान है। इस योजना के अंतर्गत सभी शिक्षकों को डिजिटल उपस्थिति प्रणाली, प्रेरणा पोर्टल और शिक्षण सामग्री के माध्यम से बच्चों के सीखने की प्रक्रिया को बेहतर बनाना था। लेकिन जगदीशपुर सोखा जैसे ग्रामीण इलाकों में यह योजना अभी तक केवल कागज़ों और बैठकों तक सीमित दिख रही है।
ग्रामीण बताते हैं कि कभी-कभी “निरीक्षण” के नाम पर अधिकारी आते हैं, पर उन्हें पहले से सूचना दे दी जाती है। उस दिन सब कुछ व्यवस्थित दिखाया जाता है। अगले दिन फिर से वही पुराना हाल लौट आता है।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE) की अनदेखी
भारत का संविधान सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार देता है। RTE (Right to Education Act, 2009) के अनुसार हर विद्यालय में शिक्षक-छात्र अनुपात, शिक्षण गुणवत्ता और उपस्थिति की निगरानी अनिवार्य है। लेकिन जब विद्यालय में शिक्षक ही अनुपस्थित मिलते हैं, तो यह कानून का सीधा उल्लंघन है।
RTE की धारा 24 कहती है —
“हर शिक्षक का कर्तव्य है कि वह नियमित रूप से विद्यालय में उपस्थित रहे और बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करे।”
यदि ऐसा नहीं होता, तो यह न केवल प्रशासनिक लापरवाही है, बल्कि संवैधानिक जिम्मेदारी का उल्लंघन भी है। फिर सवाल उठता है — इस उल्लंघन के बावजूद कार्यवाही क्यों नहीं होती?
जवाबदेही की कमी – “कौन जिम्मेदार?”
जब कोई घटना होती है, तो सबकी निगाहें “शिक्षक” पर जाती हैं। लेकिन शिक्षा तंत्र केवल शिक्षक पर नहीं टिका है — इसमें खंड शिक्षा अधिकारी (BEO), बेसिक शिक्षा अधिकारी (BSA), जिला प्रशासन और पंचायत प्रतिनिधि भी जिम्मेदार हैं।
खंड शिक्षा अधिकारी (BEO) की जिम्मेदारी होती है कि वह अपने क्षेत्र के सभी विद्यालयों का नियमित निरीक्षण करे। लेकिन वास्तविकता यह है कि एक BEO के अधीन दर्जनों विद्यालय आते हैं, और निरीक्षण महीने में एक बार भी नहीं हो पाता। कई बार रिपोर्ट बिना स्थल भ्रमण के ही तैयार कर दी जाती है।
इससे व्यवस्था में एक “निष्क्रिय श्रृंखला” बन गई है — जहाँ ऊपर वाले को नीचे की लापरवाही की जानकारी तो है, पर कार्रवाई का साहस नहीं। और नीचे वाला अधिकारी जानता है कि “ऊपर से कोई सख्ती नहीं होगी”, इसलिए वह भी ढीला पड़ जाता है।
ग्रामीण शिक्षा विशेषज्ञों की राय
बहराइच जिले में शिक्षा से जुड़े एक वरिष्ठ अध्यापक (नाम न छापने की शर्त पर) ने बताया —
“ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश शिक्षक या तो प्रशासनिक कामों में व्यस्त रहते हैं या एक साथ दो स्कूलों का प्रभार संभालते हैं। ऐसी स्थिति में नियमित उपस्थिति संभव नहीं है। लेकिन विभाग इस पर कभी गंभीरता से विचार नहीं करता।”
शिक्षा विश्लेषक डॉ. नीरज मिश्र कहते हैं —
“शिक्षक अनुपस्थिति केवल अनुशासन का मामला नहीं, बल्कि एक सामाजिक समस्या भी है। जब एक शिक्षक अपने काम को बोझ समझने लगे, तो बच्चों की शिक्षा प्रभावित होती है। ऐसी स्थिति में विभाग को जवाबदेही तय करनी होगी, नहीं तो पूरा तंत्र ढह जाएगा।”
उनका मानना है कि जब तक स्थानीय समुदाय को विद्यालय संचालन में भागीदारी नहीं दी जाएगी, तब तक कोई स्थायी सुधार नहीं हो सकता।
विद्यालय प्रबंधन समिति (SMC) की निष्क्रियता
हर सरकारी विद्यालय में एक विद्यालय प्रबंधन समिति (School Management Committee – SMC) बनाई जाती है। इसका उद्देश्य होता है —
विद्यालय की निगरानी,
उपस्थिति पर नजर,
और संसाधनों का सही उपयोग।
लेकिन जगदीशपुर सोखा की SMC भी निष्क्रिय बताई जाती है। गांव के ही एक सदस्य ने कहा —
“हमें तो सिर्फ नाम के लिए रखा गया है। बैठक साल में एक-दो बार होती है। कोई सुनता नहीं।”
यह स्थिति यह बताती है कि जहां सामुदायिक निगरानी कमजोर हो जाती है, वहाँ सरकारी तंत्र अपनी जिम्मेदारी भूल जाता है।
शिक्षकों का पक्ष: वे क्या कहते हैं?
जब टीम ने क्षेत्र के कुछ शिक्षकों से अनौपचारिक रूप से बात की, तो उन्होंने अपनी समस्याएँ भी सामने रखीं। एक शिक्षक ने कहा —
“हमसे शिक्षण के अलावा कई और काम लिए जाते हैं — जनगणना, मतदाता सूची, सर्वेक्षण, पोषण अभियान आदि। कभी-कभी इन कारणों से विद्यालय में देर हो जाती है।”
दूसरे शिक्षक ने बताया —
“कभी-कभी विद्यालय में संसाधन की कमी भी काम में रुकावट डालती है। बच्चों के लिए पर्याप्त बेंच, ब्लैकबोर्ड, या किताबें नहीं हैं। विभाग से मांग करने पर प्रक्रिया लंबी चलती रहती है।”
हालाँकि ये तर्क अपनी जगह सही हो सकते हैं, लेकिन इससे बच्चों के शिक्षा-अधिकार का हनन तो नहीं रुकता।
सरकारी योजनाएँ – वादों से हकीकत तक
पिछले कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश सरकार ने शिक्षा सुधार के लिए कई योजनाएँ चलाई हैं, जिनमें प्रमुख हैं:
मिशन प्रेरणा – बच्चों के सीखने के स्तर को सुधारने के लिए।
ऑपरेशन कायाकल्प – विद्यालयों के भवन, शौचालय, पेयजल जैसी सुविधाएँ सुनिश्चित करने के लिए।
डिजिटल उपस्थिति प्रणाली – शिक्षकों की उपस्थिति पर निगरानी रखने के लिए।
बाल शिक्षा अभियान – स्कूल ड्रॉपआउट दर कम करने के लिए।
लेकिन जब वास्तविकता में बच्चे मैदान में खेलते मिलते हैं और शिक्षक अनुपस्थित रहते हैं, तो ये सारी योजनाएँ खोखली प्रतीत होती हैं। ग्रामीण शिक्षा की समस्या केवल योजना बनाने से नहीं, जमीनी अमल से हल होगी।
शिक्षा में गिरावट के दूरगामी परिणाम
बच्चों के विकास का सबसे अहम दौर 6 से 14 वर्ष की आयु के बीच होता है। यही वह समय होता है जब वे बुनियादी पढ़ना, लिखना और गणना करना सीखते हैं। यदि इस उम्र में शिक्षा में रुकावट आती है, तो उसका असर जीवनभर बना रहता है।
राष्ट्रीय सर्वेक्षणों के अनुसार, ग्रामीण भारत में अब भी 40% बच्चे कक्षा 5 तक पहुँचने के बाद भी “कक्षा 2 के स्तर का पाठ” सही से नहीं पढ़ पाते। बहराइच जैसे सीमावर्ती जिलों में यह आंकड़ा और भी गंभीर है।
जब बच्चों को शुरुआती शिक्षा ही नहीं मिलेगी, तो वे आगे की पढ़ाई से कट जाएंगे। यही कारण है कि सरकारी स्कूलों की उपेक्षा किसी एक बच्चे की नहीं, बल्कि पूरे समाज की हार है।
शिक्षा विभाग की जवाबदेही तय करनी होगी
इस घटना के बाद विभागीय अधिकारियों को चाहिए कि:
विद्यालय की सम्पूर्ण जांच रिपोर्ट तैयार करें,
संबंधित शिक्षकों से लिखित स्पष्टीकरण मांगा जाए,
और बच्चों के सीखने के स्तर की स्वतंत्र मूल्यांकन जांच कराई जाए।
लेकिन जब तक ऐसी कार्यवाही वास्तविक रूप से नहीं होगी, तब तक बहराइच के सैकड़ों सरकारी विद्यालयों में यही हाल रहेगा — बच्चे खेलते रहेंगे, शिक्षक गायब रहेंगे, और सरकारी फाइलों में “सफलता” की रिपोर्टें बनती रहेंगी।
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