दलित अस्मिता पर बढ़ते हमले: क्या भाजपा और आरएसएस सचमुच समानता के विरोधी हैं? सिद्धार्थ का आरोप—दलितों के अपमान में सत्ता की मौन सहमति अब तक इंडिया लाइव न्यूज़ | विशेष संवाददाता, लखनऊ लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजधानी में डॉ. आंबेडकर संवैधानिक महासंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं किसान कांग्रेस के


दलित अस्मिता पर बढ़ते हमले: क्या भाजपा और आरएसएस सचमुच समानता के विरोधी हैं?

सिद्धार्थ का आरोप—दलितों के अपमान में सत्ता की मौन सहमति
अब तक इंडिया लाइव न्यूज़ | विशेष संवाददाता, लखनऊ

लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजधानी में डॉ. आंबेडकर संवैधानिक महासंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं किसान कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष सिद्धार्थ ने भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर तीखा प्रहार करते हुए कहा कि “दलित समाज पर योजनाबद्ध तरीके से हमला किया जा रहा है और सत्ता की चुप्पी इस अपराध की सबसे बड़ी सहमति है।”
उनका यह बयान ऐसे समय में आया है जब प्रदेश के कई जिलों में दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार और अत्याचार की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं।

सत्ता और संवेदनहीनता का संगम

सिद्धार्थ ने कहा कि भाजपा सरकार में दलितों के खिलाफ हिंसा और भेदभाव की घटनाएं न केवल बढ़ी हैं, बल्कि उनमें सरकारी तंत्र की निष्क्रियता भी साफ झलकती है। उन्होंने कहा, “कहीं दलितों को घोड़ी पर चढ़ने नहीं दिया जा रहा, कहीं पेशाब चटवाया जा रहा है, कहीं दलित अधिकारी की पोस्टिंग जाति देखकर तय की जा रही है—यह सब उस सोच का परिणाम है जो संविधान की समानता की भावना को नकारती है।”

विशेष रूप से लखनऊ के काकोरी क्षेत्र की हालिया घटना, जिसमें एक दलित पासी युवक को पेशाब चटवाया गया, समाज को झकझोर देने वाली है। सिद्धार्थ ने कहा, “जब मुख्यमंत्री कार्यालय से कुछ किलोमीटर की दूरी पर ऐसी घटना घटे और शासन मौन रहे, तो यह केवल कानून की नहीं, नैतिकता की हार है।”

भाजपा का सामाजिक एजेंडा और दलित विरोध

संपादकीय दृष्टि से देखा जाए तो सिद्धार्थ का बयान मात्र राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं बल्कि एक गहरी सामाजिक चेतावनी है। भाजपा और आरएसएस वर्षों से “सबका साथ, सबका विकास” का नारा देती रही हैं, लेकिन ज़मीनी सच्चाई कुछ और बयां करती है।
विकास की भाषा में ‘समानता’ की जगह ‘सहमति’ को प्राथमिकता दी जा रही है, जिसमें सामाजिक न्याय की बात गौण होती जा रही है।

सिद्धार्थ का आरोप है कि भाजपा का वैचारिक ढांचा “मनुवादी मानसिकता” पर आधारित है, जो जाति व्यवस्था को समाप्त नहीं बल्कि बनाए रखना चाहता है। उन्होंने कहा, “संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर ने जिस भारत का सपना देखा था, वह समान अवसरों और सामाजिक न्याय पर टिका था, लेकिन आज वही संविधान सत्ता के लिए सबसे बड़ी बाधा समझा जा रहा है।”

दलित नेतृत्व पर भी निशाना

सिद्धार्थ ने भाजपा में शामिल दलित मंत्रियों और विधायकों को भी कठघरे में खड़ा किया। उनके शब्दों में, “जो लोग सत्ता के सुख में अपने समाज के अपमान पर चुप हैं, वे इतिहास में गद्दार कहलाएंगे। भाजपा में दलितों की भूमिका सिर्फ दिखावे की है, ताकि अत्याचार के वास्तविक चेहरों को छिपाया जा सके।”
यह बयान केवल सत्ता पर नहीं बल्कि उस दलित राजनीति पर भी सवाल उठाता है जो वर्षों से सत्ता की दहलीज पर खड़ी होकर भी अपने समाज के लिए न्याय नहीं मांग पाई।

कानून और व्यवस्था पर सवाल

विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखें तो दलित उत्पीड़न की बढ़ती घटनाएं केवल सामाजिक नहीं, बल्कि प्रशासनिक विफलता की भी कहानी कहती हैं। जब अपराधी को राजनीतिक संरक्षण मिलने लगता है, तो समाज में भय और असमानता गहराते हैं।
काकोरी जैसी घटनाएं बताती हैं कि कानून का भय खत्म हो चुका है। यह न केवल उत्तर प्रदेश के लिए बल्कि पूरे देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने के लिए खतरे की घंटी है।

आंदोलन की चेतावनी

सिद्धार्थ ने घोषणा की कि यदि सरकार दोषियों पर त्वरित और कड़ी कार्रवाई नहीं करती, तो “डॉ. आंबेडकर संवैधानिक महासंघ और किसान कांग्रेस” राज्य-भर में जन आंदोलन छेड़ेंगे। उन्होंने कहा, “अब यह लड़ाई सिर्फ दलितों की नहीं, बल्कि संविधान बचाने की है। जब सत्ता संवेदनहीन हो जाए, तो आंदोलन ही विकल्प बचता है।”

संपादकीय दृष्टि: सत्ता की चुप्पी और समाज की जिम्मेदारी

यह सच है कि दलित उत्पीड़न की घटनाएं किसी एक सरकार या दल की देन नहीं, लेकिन जब सत्ता में बैठे लोग मौन रहते हैं, तो वह मौन भी अपराध में साझेदार बन जाता है।
राज्य की जिम्मेदारी केवल अपराधियों को सजा देने की नहीं, बल्कि ऐसी सोच को समाप्त करने की है जो किसी को ऊंचा और किसी को नीचा मानती है।
डॉ. आंबेडकर ने कहा था, “मनुष्य महान कर्मों से महान बनता है, जन्म से नहीं।” आज आवश्यकता है कि यह विचार फिर से शासन-प्रशासन की नीतियों का आधार बने।

सिद्धार्थ का यह बयान दलित अस्मिता की आवाज़ तो है ही, साथ ही एक चेतावनी भी है कि यदि समानता और न्याय की अवधारणा को कमजोर किया गया, तो यह केवल दलितों की नहीं, पूरे लोकतंत्र की हार होगी।

सभा में पंडित प्रदीप पासी, अभय प्रताप सिंह त्यागी, रामचंद्र पटेल, सोनम गौतम और सीमा गौतम सहित कई सामाजिक कार्यकर्ता उपस्थित रहे। सभी ने एक स्वर में कहा कि दलितों का अपमान अब किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जाएगा।

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