“दलितों का अपमान और सत्ता की चुप्पी: डॉ. आंबेडकर संवैधानिक महासंघ का भाजपा व आरएसएस पर गंभीर आरोप” भूमिका: संवैधानिक मूल्यों पर चोट और दलित अस्मिता का प्रश्न भारत का संविधान सामाजिक न्याय, समानता और बंधुता के सिद्धांतों पर आधारित है। बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने जिस भारत का सपना देखा


“दलितों का अपमान और सत्ता की चुप्पी: डॉ. आंबेडकर संवैधानिक महासंघ का भाजपा व आरएसएस पर गंभीर आरोप”

भूमिका: संवैधानिक मूल्यों पर चोट और दलित अस्मिता का प्रश्न

भारत का संविधान सामाजिक न्याय, समानता और बंधुता के सिद्धांतों पर आधारित है। बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने जिस भारत का सपना देखा था, उसमें जाति, धर्म या वर्ग के आधार पर किसी व्यक्ति के साथ भेदभाव न हो — यही उनकी संवैधानिक दृष्टि का मूल था।
परंतु आज भी जब देश आज़ादी के सात दशक पार कर चुका है, समाज के सबसे निचले तबके — दलितों — के साथ अत्याचार और अपमान की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं।

हाल ही में डॉ. आंबेडकर संवैधानिक महासंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं किसान कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष सिद्धार्थ लखनऊ ने भाजपा सरकार और आरएसएस पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उनका कहना है कि वर्तमान शासनकाल में दलित समाज को अपमानित और हाशिए पर धकेलने की योजनाबद्ध साजिश चल रही है।

सिद्धार्थ लखनऊ का आरोप: “दलितों को योजनाबद्ध रूप से उत्पीड़ित किया जा रहा है”

लखनऊ में आयोजित एक प्रेस वार्ता के दौरान सिद्धार्थ लखनऊ ने कहा —

उन्होंने कहा कि प्रशासनिक स्तर पर भी जातिगत भेदभाव बढ़ा है। कई बार दलित अधिकारी या कर्मचारी अपनी जाति के कारण परेशान किए जा रहे हैं, उनके ट्रांसफर या पोस्टिंग जाति देखकर तय किए जा रहे हैं।
“यह लोकतंत्र का मज़ाक और संविधान का अपमान है,” उन्होंने कहा।

काकोरी की घटना: दलित पासी युवक पर पेशाब डालने का मामला

सिद्धार्थ लखनऊ ने विशेष रूप से लखनऊ के काकोरी क्षेत्र की घटना का उल्लेख किया, जिसमें एक दलित पासी युवक पर दबंगों द्वारा पेशाब डालने का मामला प्रकाश में आया।
उन्होंने कहा —

उन्होंने मांग की कि ऐसी घटनाओं में शामिल सभी दोषियों के खिलाफ तत्काल कठोर कार्रवाई की जाए और पीड़ित परिवार को सुरक्षा व मुआवजा प्रदान किया जाए।

राजनीतिक प्रतिक्रिया और चेतावनी: जन आंदोलन की तैयारी

डॉ. आंबेडकर संवैधानिक महासंघ ने स्पष्ट चेतावनी दी है कि यदि उत्तर प्रदेश सरकार ने जल्द कार्रवाई नहीं की, तो संगठन पूरे प्रदेश में जन आंदोलन शुरू करेगा।
सिद्धार्थ लखनऊ ने कहा —

उन्होंने यह भी कहा कि आगामी विधानसभा चुनाव में दलित समाज भाजपा को सबक सिखाएगा और उन दलित नेताओं से भी सवाल करेगा जो भाजपा में रहकर सत्ता का सुख भोग रहे हैं, पर अपने समाज की आवाज़ नहीं उठा रहे।

दलित अत्याचार के हालिया परिदृश्य: आंकड़े और घटनाएं

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े बताते हैं कि भारत में दलितों पर अत्याचार के मामले हर वर्ष बढ़ रहे हैं।
2024 की रिपोर्ट के अनुसार देशभर में अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों पर अपराध के 55,000 से अधिक मामले दर्ज हुए, जिनमें से सबसे अधिक उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में हैं।

इनमें हत्या, बलात्कार, मारपीट, जातिगत गाली-गलौज, ज़मीन पर कब्ज़ा और सामाजिक बहिष्कार जैसी घटनाएं शामिल हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि यह केवल सामाजिक असमानता नहीं, बल्कि सत्ता की मौन सहमति का भी संकेत है।

सामाजिक दृष्टिकोण: आंबेडकर का भारत और आज की हकीकत

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा था —

आज जब देश ‘विकसित भारत’ बनने की दिशा में आगे बढ़ रहा है, उसी समय जाति आधारित अत्याचारों का जारी रहना लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है।
दलितों को आज भी मंदिरों में प्रवेश, विवाह समारोहों, शिक्षा, और नौकरियों में समानता नहीं मिल पा रही है।

सिद्धार्थ लखनऊ जैसे सामाजिक कार्यकर्ता यही सवाल उठा रहे हैं —
क्या भारत आज भी आंबेडकर के सपनों का भारत बन पाया है?

प्रशासनिक पक्ष: कानून हैं, पर अमल कमजोर

संविधान में अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 का प्रावधान है, जिसके तहत किसी भी दलित के साथ भेदभाव या हिंसा करने वाले पर सख्त दंड का प्रावधान है।
परंतु हकीकत यह है कि ज्यादातर मामलों में या तो एफआईआर दर्ज नहीं होती, या फिर जांच में ढिलाई बरती जाती है।
सिद्धार्थ लखनऊ ने इसी प्रशासनिक विफलता पर निशाना साधते हुए कहा —

दलित आंदोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

भारतीय समाज में दलित आंदोलन की जड़ें गहरी हैं।
1850 के दशक से लेकर आज तक दलित समाज ने कई बार अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया —
ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, पेरियार, बाबा साहेब आंबेडकर, और कांशीराम जैसे नेताओं ने दलित चेतना को नई दिशा दी।

कांशीराम ने कहा था —

आज सिद्धार्थ लखनऊ जैसे नेता उसी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं — संविधान के सहारे सामाजिक बराबरी और सम्मान की लड़ाई।

दलित समाज की राजनीतिक भूमिका

भारत की कुल आबादी में लगभग 17% दलित वर्ग है।
यह वर्ग किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए निर्णायक साबित हो सकता है।
हाल के वर्षों में भाजपा ने दलित वर्ग को अपने साथ जोड़ने का प्रयास किया, लेकिन बार-बार होने वाली हिंसा और अपमानजनक घटनाओं ने उस विश्वास को कमजोर किया है।

कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यदि दलित वर्ग एकजुट होकर सामाजिक न्याय की आवाज़ बने, तो देश की राजनीति की दिशा बदल सकती है।

मीडिया और समाज की भूमिका

मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, लेकिन सिद्धार्थ लखनऊ का आरोप है कि “मुख्यधारा का मीडिया दलित मुद्दों को उतनी प्राथमिकता नहीं देता, जितनी चाहिए।”
उन्होंने कहा —

यह सवाल केवल सरकार से नहीं, बल्कि समाज की संवेदनशीलता से भी जुड़ा है।

संविधान और नैतिक जिम्मेदारी

संविधान का अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को समाप्त घोषित करता है और अनुच्छेद 46 राज्य को अनुसूचित जातियों और जनजातियों के हितों की रक्षा करने का निर्देश देता है।
फिर भी आज जब दलितों पर अत्याचार जारी हैं, तो यह केवल कानूनी नहीं बल्कि नैतिक विफलता का भी प्रतीक है।

सिद्धार्थ लखनऊ ने कहा —

समापन: दलित अस्मिता की नई लड़ाई

आज के भारत में दलित अस्मिता की नई परिभाषा बन रही है —
अब यह केवल सामाजिक समानता की नहीं, बल्कि राजनीतिक और मानसिक स्वतंत्रता की भी लड़ाई है।

डॉ. आंबेडकर संवैधानिक महासंघ और किसान कांग्रेस के नेता सिद्धार्थ लखनऊ जैसे कार्यकर्ता इस संघर्ष को “संविधान बनाम जातिवाद” की लड़ाई के रूप में देख रहे हैं।
उनका स्पष्ट कहना है —

सभा के अंत में पंडित प्रदीप पासी, अभय प्रताप सिंह त्यागी, रामचंद्र पटेल, सोनम गौतम, सीमा गौतम सहित अनेक सामाजिक कार्यकर्ता उपस्थित रहे और सर्वसम्मति से दलित उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन तेज करने का संकल्प लिया।

निष्कर्ष

दलितों के सम्मान की लड़ाई कोई नया अध्याय नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की आत्मा है।
यदि सरकार, समाज और प्रशासन इस वास्तविकता को नहीं समझते, तो यह न केवल संविधान के प्रति बेईमानी होगी, बल्कि भारत की आत्मा के साथ विश्वासघात भी।

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