हमारा दर्द बिखरा है, हमारी दास्तानों में। हमारा अश्क़ पाओगे, इन्हीं उजड़े मकानों में। बड़े ही बेरहम दिल थे, जिन्होंने तोड़ डाला है। समझ लो पीढियों का ये, जनाजा ही निकाला है। बिलखते भूख से बच्चे, बिलखतीं औरतें घर में। बिकाऊ हो गया है, आज कल ईमान दर दर में। बहुत सोये से जागे हैं, बहुत से सो रहे होंगे। उन्हें क्या है पता हम, आज ही सब खो रहे होंगे। नहीं अगड़े समझ पाये, नहीं पिछड़े समझते हैं। बिना बे बात के क्यों कर, ये आपस में अकड़ते हैं ? कभी हक मार कर खाते, कभी पुचकारते होंगे। अकेला जान कर, कमजोर को वे मारते होंगे। नजारा आम है ये, आज कल सब देख पाये हैं। गुलामी ने सभी इतिहास के, पन्ने भुलाये हैं। अभी जो मार खायी है, नहीं अहसास हो पाया। कभी देखा कोई उनका, यहाँ पर खास हो पाया। यही है आखिरी मौसम, हमारी जिंदगानी का। पता कुछ भी नहीं, क्या अन्त हो उलझी कहानी का। नहीं गुल फिर खिलेंगे, इस तरह के बागवानों में। नहीं फिर आग इतनी, भर सकेगी नव जवानों में। हमारा दर्द बिखरा है, हमारी दास्तानों में। हमारा अश्क़ पाओगे, इन्हीं उजड़े मकानों में।
राजेश कुमार सिद्धार्थ अध्यक्ष डॉ आंबेडकर संवैधानिक महासंघ
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