महापुरुषों ने जीवन की सफलता के चार मंत्र बताए हैं


हम जैसा सोचते हैं वह हमारा चिन्तन है और अपने चिन्तन के अनुरूप जो कार्य एवं व्यवहार हम करते हैं हमारा चरित्र है । यह उक्ति सर्वथा सटीक एव उपयुक्त ही है कि - ' व्यक्ति जैसा सोचता है वैसा ही बन जाता है । इसी कथन को तनिक और स्पष्ट करते हुए इस प्रकार समझा जा सकता है - व्यक्ति मन से जैसे विचार रखता है या जो चिन्तन करता है उसी के अनुरूप उसकी वाणी मुखरित होती है । वह जैसा बोलता है वैसा ही व्यवहार करने लगता है । व्यक्ति का कार्य - व्यवहार उसकी आदतों में ढल जाता है । उसकी आदतें ही उसके चरित्र का निर्माण करती हैं तथा व्यक्ति का चरित्र ही उसका व्यक्तित्व है । इसी चरित्र की यत्न पूर्वक रक्षा करने की बात शास्त्रों में की गई है , हमें अपने चरित्र की यत्न पर्वक रक्षा करनी चाहिए ।

धन तो आता है और चला जाता है । एक बार गया हुआ धन पुनः प्राप्त किया जा सकता है किन्तु यदि चरित्र नष्ट हो गया तो उसे नष्ट ही हुआ समझें उसे पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता ।

चरित्र विषयक एक प्रचलित उक्ति यह भी है कि -
" धन गया कुछ नहीं गया , स्वास्थ्य गया तो कुछ गया और यदि चरित्र चला गया तो समझो सर्वस्व चला गया । 

चरित्र की श्रेष्ठता सतत् शुद्ध चिन्तन के अभ्यास से हा अर्जित की जा सकती है । मन और मस्तिष्क से सुविचार और सच्चिन्तन का निरन्तर अभ्यास किया जाना चाहिए । अशुभ चिन्तन से न केवल अपना अपितु अपने स्वजनों तथा सम्पूर्ण समाज का अमंगल एवं अनिष्ट होता है । मन कोइ
कूड़ाघर नहीं कि जिसमें अनाप - सनाप विचारों को भरते रहा जाय । मनोविनोद के नाम पर हल्के और अहितकर विचारों को कभी मन में नहीं आने देना चाहिए ।

हमेशा अच्छे साहित्य का अध्ययन करते रहने से , अच्छे मित्रों तथा परिजनों के पास बैठने से वैचारिक पवित्रता आती है । परम पूज्य गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा निर्दिष्ट चार संयमों के अन्तर्गत विचार संयम को भी बहुत महत्त्व दिया गया है । इन्द्रिय संयम , समय संयम तथा अर्थ संयम के साथ हमें विचार संयम के प्रति भी सदैव सचेत एवं जागरूक रहना चाहिए । गीता के दूसरे अध्याय में विषय चिन्तन के द्वारा बुद्धि नाश की प्रक्रिया को बड़े मनोवैज्ञानिक तरीके से समझाया गया है ' विषयों के चिन्तन करने से उनके संग की , उन्हें भोगने की इच्छा होती है । विषयों के सेवन से कामना उत्पन्न होती है ।

कामना से क्रोध , क्रोध से संमोह अथात मूढ़ता , इससे स्मृति नाश व स्मृति नाश से बुद्धि नाश तथा बुद्धि नष्ट होने स व्यक्ति का सर्वनाश ही हुआ समझें । ' इससे स्पष्ट हो गया कि चिन्तन या सोच कितना महत्वपूर्ण है ।

चिन्तनचरित्र को कितना और कैसे प्रभावित करता है इस समझने के पश्चात् हम यह भी - जानें कि चरित्र क्या है ? तथा इसके निर्माण हतु हमें क्या करना है । आइए कुछ प्रमुख बिन्दुओं पर विचार करते हुए इसे समझा जाय ।
 

मन की पवित्रता -
Purity Of Mind

बाह्य शद्धि एवं पवित्रता की तरह ही अंत : करण एवं मन की भी पवित्रता अति महत्वपूर्ण है । मन को अच्छे अच्छे विचारों एवं सद्भावनाओं से सदा ओत - प्रोत रखने का प्रयास करना चाहिए । छल , दंभ , द्वेष पाखण्ड झूठ आदि मनोविकारों से सदैव मक्त रहने का ही प्रयास करना चाहिए । शिष्टता , साम्यता , मृदुता , दया मैत्री , करुणा , आदि सदविचारों से परित मन के द्वारा सदैव भाग पर ही आगे बढ़ा जाय । ' भूलि न देइ कुमारग पाऊ ' कुमार्ग पर भूल कर भी कदम न रखें ।

सदाचरण का अभ्यास - 
Practice of good conduct
विचारों की शद्धता के बाद उनके अनुरुप आचरण पर सदेव ध्यान दिया जाना चाहिए । कथनी और करनी में एक रूपता के लिए व प्रयत्नशील रहना चाहिए । अपने कार्यों पर सदैव पैनी दृष्टि रखकर एक रूक प्रहरी की तरह भटकाव एवं गलत आचरण से बचे रहना चाहिए ।

प्रतिदिन सायंकाल अस्ताचलगामी सूर्य को देखकर यह भावना की जानी चाहिए ' बार - बार उठ - उठ कर अर्थात् जागरूकता पूर्वक यह सोचना चाहिए कि आज मेरे द्वारा कौन सा सत्कार्य किया गया अन्यथा आज के इस अस्त होते हुए सूर्य के साथ मेरी आयु का एक भाग भी अस्त हो रहा है । ऐसा प्रेरक चिन्तन हमें सत्कर्मों के लिए प्रेरित करता रहेगा । इससे हम आदर्श चरित्र के धनी बन सकेंगे । '

स्वमूल्यांकन करें  - 
Evaluate
इस प्रकार अपने कृत कार्यों का स्वतः ही मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए । अपने कार्य - व्यवहार के मूल्यांकन में पूरी तरह से निष्पक्ष एवं वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण रखना चाहिए । अपनी प्रतिदिन की त्रुटियों का भी लेखा जोखा रखा जाना चाहिए । प्रतिदिन पिछली भूलों तथा भूलों के निराकरण के लिए भी जागरुकता के साथ प्रयत्न करते रहना चाहिए ।

इस उद्देश्य से प्रतिदिन के कार्यों की दैनन्दिनी ( डायरी ) रखना एक अच्छी और उपयोगी आदत कही जा सकती है । माता - पिता - गुरु के मार्गदर्शन में सदा आगे बढ़ने के संकल्प तथा प्रेरणा प्राप्त करके अपना उद्धार अपने आप ही करने का प्रयास करते रहना चाहिए 

अपने अन्दर आत्मविश्वास व आत्मनिर्भरता जगाएं
Arouse confidence and self-reliance
आगे बढ़ने के लिए अपने ऊपर पूरा विश्वास होना चाहिए , डगमग सोच , अपने प्रति शंका तथा आत्महीनता से सदा बचे रहना चाहिए । सामने आने वाली चुनौती तथा संघर्षों का सामना विश्वास पूर्वक तथा निर्भयता पूर्वक करना चाहिए । विश्वासं फलदायकम् ' विश्वास ही सदैव फलदायी होता है निर्भयता सतगुणों की सेना का सेनापति है ।

सभी सदगणों को रखने के लिए सच्ची बहादुरी एवं निर्भयता की आवश्यकता है । महापुरुषों ने जीवन की सफलता के चार मंत्र बताए हैं - समझदारी , ईमानदारी , जिम्मेदारी और बहादरी इसे जीवन में पक्के निश्चय से पालन करते रहा जाय । चरित्र निर्माण का महत्वपूर्ण सूत्र यही है कि अपने पर निर्भर रहने की वत्ति दिनों - दिन बलवती होनी चाहिए । परमुखापेक्षा तथा परावलम्बी का चरित्र टिकाऊ व सदढ सकता 

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