नी पुलिसवालों के साथ हमारा पहला अनुभव अच्छा नहीं था. वे बेहद सख्त, बेरहम और बदजुबान थे. एक ने मेरे पास कई किताबें देख कर पूछा, दलाई लामा का फोटो तो नहीं है. मैंने कहा, किताब में नहीं, दिल में है. वह मेरी ओर खीझ से देख रहा था. चीन में दलाई लामा के चित्रों पर पाबंदी है. वहां दलाई लामा के चित


दूसरे रोज सुबह हम सिमिकोट से हिलसा के लिए उड़े. हिलसा चौदह हजार फीट पर था. ऊंचाई ज्यादा थी, इसलिए हेलीकॉप्टर पूरी क्षमता से नहीं उड़ सकता था. तीन और चार के ग्रुप में हम बारी-बारी से वहां पहुंचाए गए. हिलसा पचास घरों का छोटा सा अस्थायी गांव है. अस्थायी इसलिए कि सर्दियों में जब यहां बर्फ पड़ती है तो ये गांववाले सिमिकोट चले जाते हैं. एक पतली लेकिन हाहाकारी नदी करनाली हिलसा में नेपाल और तिब्बत की सीमा बनाती है. नदी के उस पार चीन है. दोनों को जोड़नेवाला एक लक्ष्मण झूला जैसा पुल है. इस पुल को पैदल पार करना होता है.

 

करनाली नदी मानसरोवर से निकलती है. पूरा नेपाल पार करते हुए जब भारत में पहुंचती है तो सरयू कही जाती है. यही अयोध्या के बाद घाघरा बन जाती है. यानी मानसरोवर से निकलकर बलिया के पास गंगा में मिलते-मिलते यह नदी तीन नामों से जानी जाती है.

 

खूबसूरत संयोग

करनाली नदी के सरयू अवतार से एक खूबसूरत संयोग समझ आया. कैलास से रामेश्वरम तक शिव और राम का संबंध. कैलास मानसरोवर से सरयू निकली जिसके किनारे अयोध्या बसी है. यहीं राम जन्मे और सरयू में खेलते, तैरते बड़े हुए. सरयू के तट पर राम ने जीवन सीखा, समाज को जाना, परंपरा और धर्म को समझा. इसी जल से सींचकर राम का व्यक्तित्व बना. और राम जब वनवास पर निकले, सीता हरण के बाद लंका से पहले समुद्र तट पर रुके, तब भी शिव की आराधना से ही रावण और लंका पर विजय की संकल्प सिद्धि की. राम के जीवन में शिव के समावेश का यह प्रसार कैलास से रामेश्वरम तक स्थापित है.

हम हिलसा में थे. हिलसा में सब टुन्न थे, परम बुद्धत्व को प्राप्त. पूरा समाज चौबीस घंटे परमानंद को प्राप्त. कस्बे के लगभग सभी घर यहां चाय-नाश्ते की दुकान चलाते हैं या ऊन बेचते हैं. हेलीकॉप्टर से आनेवाले तीर्थयात्रियों के लिए लकड़ी की आग में बनाई गई चाय और भोजन से ही इनकी आजीविका है. महिलाएं दुकान संभालती हैं और पुरुष नेपाल तथा चीन के सीमांत सम्मोहन से ऊपर उठ परम टुन्न. हमारे दूसरे साथियों के इंतजार में हमें यहां चाय-नाश्ता करना पड़ता है. सबके आने के बाद हम पैदल पुल पार कर चीन के तकलाकोट पहुंचे.

हिलसा गांव

चीन में भारतीय मुद्रा पर पाबंदी

तकलाकोट शहर तो यहां से दूर है, पर सीमा चौकी पास ही है, जहां कस्टम और आव्रजन की जांच होती है. हमारे पासपोर्ट और परमिट देखे जाते हैं. हमारी घड़ियों की सुई ढाई घंटे आगे बढ़ा दी गई, क्योंकि वहां का टाइम जोन हमसे ढाई घंटे आगे है. किसी के पास भारतीय मुद्रा और सीमांत क्षेत्र में खींची गई फोटो तो नहीं है, इसकी भी जांच हुई.

चीन में भारतीय मुद्रा नहीं ले जा सकते. चीनी पुलिसवालों के साथ हमारा पहला अनुभव अच्छा नहीं था. वे बेहद सख्त, बेरहम और बदजुबान थे. एक ने मेरे पास कई किताबें देख कर पूछा, दलाई लामा का फोटो तो नहीं है. मैंने कहा, किताब में नहीं, दिल में है. वह मेरी ओर खीझ से देख रहा था. चीन में दलाई लामा के चित्रों पर पाबंदी है. अगर आप वहां दलाई लामा के चित्रों का सार्वजनिक प्रदर्शन करें तो दस साल की सजा का प्रावधान है.

ॐ नम: शिवाय का नारा

अब हम चीन-शासित तिब्बत में थे. हमारे ड्राइवर तिब्बती थे. भाषा की समस्या थी. पर संवाद की नहीं. हमें देखते ही वे चीखे, बम भोले, हर-हर महादेव! सिर्फ इतनी ही हिंदी वे जानते थे. तिब्बत पर पांव रखते ही अहसास हुआ, अरे, ये तो हमारे सारनाथ जैसा है. स्थानीय लोगों का व्यवहार बड़ा आत्मीय था. यहां भाषा फेल थी. न हिंदी, न अंग्रेजी, बातें आंखों और इशारों से हो रही थीं.

भाषा के नाम पर गांव के बच्चे, बाजार वाले सभी नारे लगाते हैं- ॐ नम: शिवाय. वे देवनागरी से परिचित नहीं हैं लेकिन पंचाक्षर जानते हैं. मुझे मन में उनके पुण्य का भान हुआ. भारत और विश्व में करोड़ों लोग ऐसे हैं जो कैलास की जड़ में खड़े होकर एक बार पंचाक्षर मंत्र बोल पाने के अवसर के लिए तरसते हैं. और एक इनका भाग्य है कि कैलास की गोद में बैठकर जीवनभर इस मंत्र को बोल पाते हैं.

भारतीय और नेपालियों की दुकानें

तकलाकोट चीन का सीमांत शहर है. सुरक्षा के नाम पर काफी संवेदनशील. हमें थोड़ी-थोड़ी दूर पर सैन्य चौकियां दिख रही थीं. यहां के सरकारी रेस्ट हाउस में हमारे ठहरने का इंतजाम था. छह से सात हजार की आबादी है इस शहर की. तिब्बती, नेपाली, भारतीय सबके बाजार हैं यहां. भारतीय व्यापारियों का कभी यहां वर्चस्व हुआ करता था. सन् 1962 की लड़ाई के बाद उनका आना-जाना बंद हुआ. लेकिन यहां अभी भी 30-40 दुकानें भारतीय व्यापारियों की हैं. बाकी दुकानें चीनी और नेपाली लोगों की हैं.

नेपाल और तिब्बत को जोड़ता पुल

तकलाकोट कस्टम ने यहां फिर से हमारा पासपोर्ट और परमिट जांचा, तब हमें आगे जाने की इजाजत दी. यहीं हमें काठमांडू से आए गाइड और खानसामा मिले, अपने ट्रक के साथ. ट्रक में पूरा किचन था. खाने के सभी सामान, बरतन, पीने का पानी था. सबके लिए दवाइयां, ऑक्सीजन सिलेंडर और माइनस तापमान के लिए खासतौर पर बनी जैकेट भी इसमें थीं. रात का खाना इन्हीं लोगों ने बनाया. नेपाली गाइड हमें समझा रहा था कि खाने के लिए किसी चीनी दुकान में न जाएं. न जाने वे क्या खिला दें… कुत्ता, बिल्ली, बंदर? तिब्बती ड्राइवर गुंफा दोरजी हमसे बातचीत में तिब्बत पर चीनी प्रभुत्व के खिलाफ आक्रोश प्रकट कर रहा था.

चीन के खिलाफ सुलगती चिंगारी

गुंफा की जिज्ञासा दलाई लामा और भारत में रह रहे तिब्बतियों का हाल जानने की थी. और ये केवल गुंफा के मन में हो, ऐसा नहीं है. तिब्बती भले ही चीनी प्रभाव में रहने को मजबूर हों लेकिन उनके मन में, आस्था में, गर्व और पहचान में अभी भी तिब्बत है, बुद्ध हैं, दलाई लामा है. चीन बहुत ताकतवर है. लेकिन लोगों के मन में सुलगती ये चिंगारियां ही आगे किसी विद्रोह की होलिका बनेंगी. ऐसा मेरा विश्वास हैं.

पता नहीं तिब्बत की स्वतंत्रता और स्वाधीनता का संघर्ष कितना लंबा चलना है और किसकी जीत होनी है. लेकिन जो कुछ मैंने देखा. महसूस किया उससे इस संभावनाओं को समझा जा सकता है कि दिलों में आग बाकी है. दुष्यंत तो कहते ही हैं- हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए. वहां आग जल रही है. हमने भारत में तिब्बतियों के प्रति अपने प्रेम की जानकारी उन्हें दी. उससे हमारी मित्रता अब आत्मीयता के स्तर पर थी.

वहां भी पुरुषों से ज्यादा जिम्मेदार महिलाएं

यहां भी वही स्थिति. सूर्य अस्त, पहाड़ मस्त. शहर में काफी गंदगी थी. मैंने महसूस किया कि दुनियाभर में काम के मामले में महिलाएं पुरुषों से ज्यादा जिम्मेदार और अनुशासित हैं. पहाड़ों में तो खासतौर पर देखने को मिलता ही है कि महिलाएं खेत, मवेशी, घर, बागीचे, बच्चे सब संभाल रही हैं और पुरुष धुंआ या तरल में डूबते तैरते नजर आ रहे हैं. इन महिलाओं को देखता हूं तो कभी गणेश और कार्तिकेय के पीछे भागती, नंदी और मंडली वालों की देखभाल करती पार्वती नजर आती हैं और कभी भोले भंडारी की पूरी नगरी, काशी के लिए रसोई पकाती, अन्न-जल प्रदान करती अन्नपूर्णा साक्षात दिखाई देती हैं.

हम मैदान से आए थे. हमारे लिए यहां की शराब खतरनाक हो सकती थी. ऐसा हमें पहले ही समझा दिया गया था. मैं वैसे भी इस स्वाद का नहीं हूं. तो हमारे लिए पीने के नाम पर चाय थी. पर सावधान. तिब्बती चाय नमकीन होती है और ऊपर से उसमें याक के दूध का मक्खन डाल देते हैं. पूरी यात्रा में सिर्फ एक बार मैंने यह चाय पी, वह भी तिब्बतियों से भाईचारा दिखाने के लिए नाक बंद कर पीनी पड़ी.

भारत में उत्तराखंड के धारचूला के जरिए जो सरकारी यात्रा आती है, वह भी सबसे पहले तकलाकोट ही पहुंचती है. इस लिहाज से तकलाकोट भारत की सीमा के सबसे करीब मानसरोवर यात्रा का सिंहद्वार है… जय जय

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