Rajesh Kumar Siddharth (राजेश कुमार सिद्धार्थ)


नंग धड़ंगों की टोली भी, फँस गयी नये झमेले में।
कच्चा मांस सूतने वाले, मिले अघोरी मेले में।
जेसीवी की यही मशीनें, पक्के महल ढहाती थीं।
महा कुम्भ के मेले में ये, बुल्डोजर बन जाती थीं।
कितने चप्पल जूते कपड़े, गये दबाये रेती में।
अब अच्छा उत्पादन होगा, गंगा की इस खेती में।
जुमला फेंका गया मोक्ष का, दाग लगाने क्यों आये ?
महा कुम्भ की इस बेला में, लोग नहाने क्यों आये ?
उनका कुछ भी दोष नहीं है, उन्हें जहर फैलाना था।
जनसंख्या बढ़ रही उसे तो, इसी तरह निपटाना था।
भेंट चढ़ गये जाने कितने, माँग रहे थे नौकरियाँ।
भीड़ भाड़ में धक्के खा कर, कैसे बचतीं डोकरियाँ।
चील और कौए भी भागे, भीड़ देख इंसानों की।
कहीं चिता भी नहीं जल सकी, दशा बुरी जजमानों की।
नहीं नियंत्रण में था कुछ भी, हवा चलायी नल्लों की।
गये कुम्भ में सबने देखी, हालत बुरी निठल्लों की।
सभी नशेड़ी और भंगेड़ी, खेल रहे थे पाशों से।
अबलाएँ कैसे बच पातीं, उनके खेल तमाशों से।
बाढ़ नदी में थी पर उससे, ज्यादा बाढ़ कुकर्मों की।
लोग नहीं समझेंगे सच में, है हालत ये धर्मों की।
लाशें मुर्दाघर में सड़तीं, कौन वहाँ तक जा पाता ?
अगर गया कोई भी अन्दर, नहीं लौट कर आ पाता।
बलि का बकरा कौन बनेगा, भगदड़ वाली रातों का।
खुल्लम खुल्ला सबने देखा, हाल बुरा जज्बातों का।
दो दस नहीं सैकड़ों कहते, गिनती रही हजारों में।
नहीं सुनायी पड़ा कहीं कुछ, अन्धभक्त के नारों में।
डिजिटल हुआ जमाना देखो, माल गया सब थैले में।
धक्का मुक्की भागमभागी, पिसे हजारों रैले में।
नंग धड़ंगों की टोली भी, फँस गयी नये झमेले में।
कच्चा मांस सूतने वाले, मिले अघोरी मेले में।

राजेश कुमार सिद्धअर्थ अध्यक्ष डॉ आंबेडकर संवैधानिक महासंघ

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