अंग्रेजों की गुलामी से देश को आजाद कराने में नजाने कितने दलितों और आदिवासियों ने जान की बाजी लगा दी अपना लहू बहाया और शहीद हो गए


अंग्रेजों की गुलामी से देश को आजाद कराने में नजाने कितने दलितों और आदिवासियों ने जान की बाजी लगा दी अपना लहू बहाया और शहीद हो गए. लेकिन इतिहास में दलित समाज की भूमिका को एक सोची समझी साजिश के कारण लिपिबद्ध नहीं किया गया. दलित चिंतकों और क्रांतिकारियों को इतिहास में पूरी तरह हाशिए पर रखा गया. परिणाम स्वरूप साधारण जनता आजादी के आंदोलन में दलित समाज के देश भक्तों की भूमिका से अनजान ही रही. लेकिन अब यह सच्चाई सामने आने लगी है. यह रिपोर्ट “दलित दस्तक” की एक कोशिश है कि जिसे सामंती इतिहासकारों ने नजर अंदाज कर दिया, उस पर भी रौशनी डाली जाए और स्वतंत्रता संग्राम में दलितों के योगदान का स्वरूप सामने आए. हो सकता है कुछ नाम छूटे रह जाएं लेकिन जिनके बारे में हमें जानकारी मिल सकी, इतिहास के धुंधले पन्नों और इतिहासकारों को कुरेदने के बाद हम जिन्हें ढ़ूंढ़ सके, उनके योगदान को हम इस रिपोर्ट के माध्यम से सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं….

वैसे तो देश की आजादी का पहला स्वतंत्रता संग्राम 1857 का माना जाता है लेकिन अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल 1780-84 में ही बिहार के संथाल परगना में तिलका मांझी की अगुवाई में शुरू हो गया था. तिलका मांझी युद्ध कला में निपुण और एक अच्छे निशानेबाज थे. इस वीर सपूत ने ताड़ के पेड़ पर चढ़कर तीर से कई  अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया था. इसके बाद महाराष्ट्र, बंगाल और उड़ीसा प्रांत में दलित-आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत शुरू कर दी. इस विद्रोह में अंग्रेजों से कड़ा संघर्ष हुआ जिसमें अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ी. सिद्धु संथाल और गोची मांझी के साहस और वीरता से अंग्रेज कांपते थे. बाद में अंग्रेजों ने इन वीर सेनानियों को पकड़कर फांसी पर चढ़ा दिया.

उदईया

इसके बाद अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगुल 1804 में बजा. छतारी के नवाब नाहर खां अंग्रेजी शासन के कट्टर विरोधी थे. 1804 और 1807 में उनके पुत्रों ने अंग्रेजों से घमासान युद्ध किया. इस युद्ध में जिस व्यक्ति ने उनका भरपूर साथ दिया वह उनका परम मित्र उदईया था, जिसने अकेले ही सैकड़ों अंग्रेजों को मौत के घाट उतारा. बाद में उदईया पकड़ा गया और उसे फांसी दे दी गई. उदईया की गौरव गाथा आज भी क्षेत्र के लोगों में प्रचलित हैं.

मातादीन

अगर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की बात करें तो इसकी शुरूआत मूलत: मातादीन भंगी के उद्गारों से होती है. दरअसल 1857 के “सिपाही विद्रोह” जिसके नायक के रूप में मंगल पांडे को माना जाता है, वह अंग्रेजी सेना के सिपाही थे. मातादीन छावनी की कारतूस फैक्ट्री में सफाई कर्मचारी थे. एक दिन मातादीन ने मंगल पांडे से पानी पीने के लिए लोटा मांगा तो मंगल पांडे ने साथ काम कर रहे दलित सिपाही को लोटा देने से मना कर दिया. तब अपमानित मातादीन ने फटकारते हुए कहा,  बड़ा आया है ब्राह्मण का बेटा…. जिन कारतूसों का तुम उपयोग करते हो उन पर गाय और सूअर की चर्बी लगी होती है. जिसे तुम अपने दांतों से तोड़ कर बंदूक में भरते हो…. क्या उस समय तुम्हारा धर्म भ्रष्ट नहीं होताÓ. इस तंज का मंगल पांडे के दिमाग पर गहरा असर पड़ा. अंग्रेजों की इस करतूत को मंगल पांडे ने हिन्दू और मुस्लिम सिपाहियों की बैठक में बड़ी गंभीरता के साथ उठाया. मातादीन के इसी तंज ने सिपाहियों को जगा दिया. यहीं से अंग्रेजों के प्रति सिपाहियों में नफऱत पैदा होने लगी. सैनिकों ने कारतूस को दांत से खींचने से मना कर दिया. अंग्रेज इस बात से बौखला गए, जिससे दलित मातादीन और मंगल पांडे को पकड़ कर फांसी दे दी गई. इससे बढ़कर विडंबना और क्या हो सकती है कि इतिहास में मंगल पांडे का नाम शहीदों में सबसे ऊपर है लेकिन आजादी का मंत्र फूंकने वाले मातादीन भंगी को हिन्दू इतिहास में कहीं स्थान नहीं मिल सका, क्योंकि वह दलित क्रांतिकारी योद्धा था.

चेतराम जाटव और बल्लू मेहतर

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में शहीद होने वाले चेतराम जाटव और बल्लू मेहतर को इतिहासकारों ने भुला दिया. उन्होंने आजादी के लिए न केवलफिरंगियों से टक्कर ली बल्कि देश की आन-बान और शान के लिए कुर्बान हो गए. क्रांति का बिगुल बजते ही देश भक्त चेतराम जाटव और बल्लू मेहतर भी 26 मई 1857 को सोरों (एटा) की क्रांति की ज्वाला में कूद पड़े. वे इस क्रांति की अगली कतार में खड़े रहे. फिरंगियों ने दोनों दलित क्रांतिकारियों को पेड़ में बांधकर गोलियों से उड़ा दिया और बाकी लोगों को कासगंज में फांसी दे दी गई. इतना ही नहीं, 1857 की जौनपुर क्रांति असफल नहीं होने पर जिन 18 क्रांतिकारियों को बागी घोषित किया गया उनमें सबसे प्रमुख बांके चमार था, जिसे जिंदा या मुर्दा पकडऩे के लिए ब्रिटिश सरकार ने उस जमाने में 50 हजार का इनाम घोषित किया था. अंत में बांके को गिरफ्तार कर मृत्यु दंड दे दिया गया.

वीरांगना झलकारी बाई

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं ने भी न केवल बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया बल्कि प्राणों की आहुति भी दी. वीरांगना झलकारी बाई का नाम हमेशा इतिहास में अंग्रेजों से लोहा लेने और शहीद होने वालों में याद किया जाता रहेगा. वीरांगना झलकारी बाई के पति पूरन कोरी राजा गंगाधर राव की सेना में मामूली सिपाही थे. झांसी में जब सिपाही क्रांति हुई तो उसका संचालन पूरन कोरी ने ही किया. साहित्य से यह स्पष्ट है कि झलकारी बाई और लक्ष्मीबाई की सकल-सूरत एक दूसरे से काफी मिलती जुलती थी, इस लिए अंग्रेजों ने झलकारीबाई को ही रानी लक्ष्मीबाई समझकर काफी देर तक लड़ते रहे. बाद में झलकारीबाई शहीद हो गईं लेकिन इतिहासकारों ने झलकारीबाई के योगदान को हाशिए पर रखकर रानी लक्ष्मीबाई को ही वीरांगना का ताज दे दिया.

ऊदादेवी पासी

वीरांगना ऊदादेवी के संघर्ष और बलिदान को देखें तो उनसे संबंधित समूचा घटनाक्रम अधिक अर्थपूर्ण लगता है तथा उसके नए आयाम उभर कर सामने आते हैं. बहुत से लोगों के लिए यह रोमांचक बलिदान इस कारण महत्वपूर्ण हो सकता है कि ऐसा साहसिक कारनामा एक स्त्री ने किया. बहुत से लोग केवल इस कारण गर्व से मस्तक ऊंचा कर सकते हैं कि उस बलिदानी, दृढ़ संकल्पी महिला का सम्बन्ध दलित वर्ग से था. दूसरे लोग मात्र इसी कारण इस महाघटना के अचर्चित रह जाने को बेहतर मान सकते हैं. वे इसके लिये ठोस प्रयास भी करते रह सकते हैं,बल्कि किया भी है. 16 नवम्बर1857 को लखनऊ के सिकन्दरबाग चौराहे पर घटित इस अपने ढंग के अकेले बलिदान तथा इसकी पृष्ठभूमि में सक्रिय अभिन्न पराक्रम को इस कारणअधिक महत्वपूर्ण माना जा सकता है कि इस घटना मात्र से समूचे प्रथम स्वाधीनता संग्राम को न केवल नयी गरिमा मिलती है बल्कि उसके अपेक्षितविमर्श से वंचित रह गये कुछ पक्षों पर व्यापक विचार के अवसर भी उपलब्ध होते हैं.

ऊदादेवी को इतिहास के पन्नों से दूर ही रखा गया. वीरांगना ऊदादेवी का इतिहास सामने लाने का काम पासी रत्न कहे जाने वाले राम लखन ने किया. कई सालों के शोध और इतिहासकारों से संपर्क के बाद वीरांगना ऊदादेवी का इतिहास उभर कर सामने आया. शहीद वीरांगना ऊदादेवी के संदर्भ में सबसे पहले लंदन की इंडियन हाऊस लाइब्रेरी में 1857 के गदर से संबंधित कुछ दस्तावेज व अंग्रेज लेखकों की पुस्तकें प्राप्त हुईं जिसके अनुसार ऊदादेवी नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल की महिला सैनिक दस्ते की कप्तान थीं. इनके पति का नाम मक्का पासी था. जो लखनऊ के गांव उजरियांव के रहने वाले थे. अंग्रेजों ने लखनऊ के चिनहट में हुए संघर्ष में मक्का पासी और उनके तमाम साथियों को मौत के घाट उतार दिया था. पति की मौत का बदला लेने के लिए वीरांगना ऊदादेवी 16 नवंबर 1857 सिकंदर बाग (लखनऊ) में एक पीपल के पेड़ पर चढ़कर 36 अंग्रेज फौजियों को गोलियों से भून दिया था और बाद में खुद भी शहीद हो गईं थीं. इस घटना का पूरा उल्लेख ब्रिटिश फौज के सार्जेंट फोवेंस ने अपनी पुस्तक में किया है. वीरांगना ऊदादेवी का इतिहास लखनऊ के एटलस और एनबीआरआई के म्यूजियम में तस्वीरों के माध्यम से आज भी देखा जा सकता है. वीरांगना ऊदादेवी विश्व की पहली महिला हैं जिन्होंने 36 अंग्रेज सैनिकों को मार डाला था लेकिन इतिहासकारों ने ऐसी विश्व स्तरीय शहीद दलित महिला को नजर अंदाज कर दिया.

महाबीरी देवी वाल्मीकि

दलित समाज की महाबीरी देवी भंगी को तो आज भी बहुत कम लोग जानते हैं. मुजफ्फरपुर की रहने वाली महाबीरी को अंग्रेजों की नाइंसाफी बिलकुल पसंद नहीं थी. अपने अधिकारों के लिए लडऩे के लिए महाबीरी ने 22 महिलाओं की टोली बनाकर अंग्रेज सैनिकों पर हमला कर दिया. अंग्रेजों को गांव देहात में रहने वाली दलित महिलाओं की इस टोली से ऐसी उम्मीद नहीं थी. अंग्रेज महाबीरी के साहस को देखकर घबरा गए थे. महाबीरी ने दर्जनों अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया और उनसे घिरने के बाद खुद को भी शहीद कर लिया था.

चौरी-चौरा का इतिहास

5 फरवरी 1922 को गोरखपुर के गांव चौरी-चौरा में दलित समाज की एक सभा चल रही थी. इस सभा में स्वराज पर ही मंथन चल रहा था. तभी वहां से गुजर रहे एक सिपाही ने जोशीला भाषण कर रहे रामपति (दलित) पर अपमान सूचक शब्दों की बौछार कर दी. सिपाही के दुर्व्यवहार से लोग उत्तेजितहो गए और देखते ही देखते ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ नारे लगाने लगे. पुलिसवालों ने नारेबाजी कर रहे लोगों के साथ दुर्व्यवहार किया जिससे नाराजलोगों ने पुलिस पर हमला बोल दिया और सिपाहियों को भाग कर थाने में छुपना पड़ा. क्रांतिकारियों ने पुलिस चौकी में ही आग लगा दी और जो सिपाही बाहर निकला उसे भी मार डाला और आग के हवाले कर दिया. इस काण्ड में कुल 22 पुलिसवाले मारे गए. दलित समाज के कई लोगों की गिरफ्तारियां हुईं, मुकदमें चले जिसमें से 15 लोगों को फांसी दे दी गई. 14 लोगों को कालापानी की सजा और बाकी लोगों को आठ-आठ साल और पांच-पांच साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई. इस क्रांति ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी थी.

जिस समय चौरी-चौरा काण्ड हुआ उस समय देश में असहयोग आंदोलन चल रहा था. तब मोहनदास गांधी ने 12 फरवरी 1922 को आंदोलन समाप्त करने की घोषणा की थी. इस संबंध में गांधीजी का तर्क था कि चौरी-चौरा काण्ड उनके अहिंसक सिद्धांत के विरुद्ध था. गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भी दलित वर्गों के देशभक्तों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और पूरे देश में अपनी गिरफ्तारियां दी. इन देश भक्तों में गोरखपुर का मिठाई, ठेलू, गजाधर,और कल्लू. सीतापुर के दुर्जन और चौधरी परागी लाल, आजमगढ़ के राम प्रताप, सुल्तानपुर के सूरज नारायण और लखनऊ के सीताराम और जोधा प्रमुख थे.

नमक सत्याग्रह का आंदोलन

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